गायब होते चाल: एक अनोखी जल संरक्षण प्रणाली

A group of women constructing a ‘chaal’ on the slopes

`चाल’ सामान्य अर्थ में सिर्फ वाटर टैंक नहीं हुआ करते थे। पहाड़ों पर यह पानी को सहेजने का एक तरीका हुआ करता थ्‍। पर अब चाल-खाल गायब हो रहे हैं। इसके साथ ही गायब हो रही है पहाड़ की पारंपरिक जल प्रबंधन की व्यवस्था। जाहिर है, आगे की कहानी त्रासद है।

दारघाटी के अंतिम छोर पर बसे गोंदार में जब आप घुसते हैं, तो आपका सामना एक सीमेंटेड टैंक से होता है, जिसमें पानी भरा है। गांव के मवेशी इस टैंक से पानी पीते हैं। इस गांव में राज्य गठन के 13 साल बाद भी बिजली नही है, पर हर घर के पास एक पानी का नल जरूर है। मदमहेश्वर नदी के किनारे बसे इस गांव के हर घर कोे यह सुविधा तो मिली, पर गांव की धारा (पेयजल का प्राकृतिक स्रोत) गायब हो गया। गोंदार एक ऐसा गांव है, जो मदमहेश्वर घाटी के करीब तीन दर्जन से अधिक गांवों के लिए पानी का स्रोत है। ऊंचाई पर बसे होने के कारण यहां से पानी को टैप करके निचले इलाकों तक पहुंचाना आसान है। बीते साल 16-17 जून को उत्तराखंड में आई आपदा ने इन पाइपलाइनों को ध्वस्त कर दिया था और निचले क्षेत्र के ये गांव जल संकट से जूझने को विवश हो गए थे। पर गोंदार की यह तस्वीर गांव के बुजुर्ग आलम सिंह की धुंधली होती आंखों की नहीं है। करीब 80 बसंत देख चुके आलम सिंह की यादों में अब भी ऐसा गांव बसता है, जहां एक ‘चाल’ हुआ करती थी। गांव में एक धारा थी। समय के साथ यह सब गायब हो गया। अब गांव में है तो नल से टपकता पानी। मदमहेश्वर धाम का अंतिम पड़ाव यह गांव पिछले कुछ सालों में बदल गया है। इसी हिसाब से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के गांव भी बदल रहे हैं। पहाड़ का पानी से गहरा रिश्ता है। पहाड़ पानी से टूट जाते हैं। पहाड़ पानी को अपनी गोद में समेट लेते हैं। पहाड़ पानी को ढलान की गति देते हैं। इसी हिसाब से पहाड़ के गांव के लोगों का पानी के साथ रिश्ता था।

यह रिश्ता जीवन से जुड़ा हुआ था। पहाड़ियों में ऊंचाई वाले क्षेत्रों में ‘चाल’ हुआ करती थी। यह ‘चाल’ सामान्य अर्थ में सिर्फ वाटर टैंक नहीं हुआ करते थे। यह पानी को सहेजने का तरीका हुआ करता था। जिसे वैज्ञानिक शब्दावली में स्लोप ब्रेक (ढाल की दरार) कहा जाता है, ये ‘चाल’ वहां हुआ करती थीं। इनमें बरसात का पानी जमा होता था। घरेलू जानवरों को इनसे पीने को पानी मिला करता था। गर्मियों में जब जलधाराओं में पानी कम होता था, तो ये ‘चाल’ इन जलधाराओं को सींचने का काम करते थे। गांव से दूर बनी ‘चाल’ से पीने के पानी की जरूरत पूरी होने के कारण जंगली जानवर पानी की तलाश में गांव में नहीं घुस आया करते थे। इन ‘चालों’ के किनारे किसी देवता का मंदिर हुआ करता था। लोग पूजा करते थे और सामूहिक श्रम के जरिए ‘चाल’ की मरम्मत करते थे। यह एक तरह से परंपरा से ओतप्रोत गांव के लोगों का जल प्रबंधन था। खाल; चाल का ही विस्तृत रूप है। हजार लीटर से अधिक पानी को संचित करने वाली जगह, जो दो पहाड़ियों के बीच में होती है। पर अब चाल-खाल गायब हो रहे हैं। इसके साथ ही गायब हो रही है पहाड़ की पारंपरिक जल प्रबंधन की व्यवस्था। आदमी और कुदरत के बीच बढ़ती दूरी ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है। पाइपलाइन से पानी घरों के आंगन तक पहुंच रहा है। चाल-खालों के गायब होने के साथ ही यह संतुलन गड़बड़ा रहा है। इसने भूस्खलन, मिट्टी के कटाव को बढ़ावा दिया। चाल-खाल जंगल में हैं और जंगल अब गांव की नहीं सरकार की संपत्ति है। लिहाजा अब चाल-खाल की तरफ जाना नहीं होता। यहां पूजा नहीं होती। जंगलों के बीच से होते हुए जंगली जानवरी गांव में पहुंच जाते हैं। गर्मियों में धारा सूख जाती है। पानी के पड़ोस में रहते हुए भी पानी नहीं मिलता। ऐसा नहीं है कि इन चाल-खालों को पुनर्जीवित करने की कोशिश नहीं हुई। कई किस्से, कहानी , शोध उत्तराखंड में मिल जाएंगे। ऐसा ही एक प्रयास उफरांईखाल में सचिदानंद भारती ने सहयोगियों की मदद से जलस्रोत को जिंदा करने का किया है। गैर सरकारी संस्‍था हैस्को भी भाभा रिसर्च सेंटर की मदद से करीब 65 जलधाराओं को रिचार्ज कर चुकी है।

किसी भी समाज के लिए जरूरी है कि प्रकृति की निरंतरता को बनाए रखने के लिए वह लगातार कोशिश करता रहे और अनचाहे प्रयोग न करे। चाल, खाल और ताल प्रकृति की देन हैं। इनको बचाए रखने पर ही यह समाज भी बच पाएगा। पर हमने क्या किया। प्रकृति की अनुपम धरोहर चाल, खाल और ताल से जुड़े प्रबंधन को ठुकरा दिया, इस ज्ञान को बिसरा दिया। यही कारण है कि अब हम संकट की ओर बढ़ रहे हैं। हमारे पास ज्यादा समय नहीं रह गया है। हमे अपनी गलती सुधारनी होगी।

चाल-खाल तो अब धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं। जल का जबसे सरकारीकरण हो गया है, तब से लोगों ने भी चाल-खाल की तरफ ध्यान देना बंद कर दिया है। अब सरकारी पाइपों से घर तक पानी पहुंच रहा है, तो इसकी जरूरत कम महसूस हो रही है। पहले प्रकृति संरक्षण का यह एक तरीका था। चाल-खाल के संरक्षण की समृद्ध परंपरा थी। चाल-खाल से यह भी माना जाता था कि धाराओं को पानी मिलेगा। अब नए तरीके से चाल बनाई जा रही हैं। पर इसमें स्थानीय लोगों का जुड़ाव हो, तो बात बने।

अनिल जोशी

पर्यावरणविद

चंडी प्रसाद भट्ट

पर्यावरणविद

स्रोत: http://epaper.amarujala.com/svww_index.php

Time Tested Ancient Water Harvesting Systems In India

Addressing the water quality and quantity issues in Himalayan region    


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About Rashid Faridi

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1 Response to गायब होते चाल: एक अनोखी जल संरक्षण प्रणाली

  1. Good. This is the base of water conservation and the support system of a unit.

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